Updated: April 15, 2025 at 10:09 IST
भारत की गर्मियों में ठंडक के लिए अगर किसी पेय का नाम सबसे पहले ज़ुबान पर आता है, तो वह है — रूह अफ़ज़ा।
एक ऐसा मीठा, गुलाबी और ठंडक देने वाला शरबत जो दशकों से भारतीय घरों का हिस्सा रहा है — रोज़े के समय, इफ्तार में, बच्चों के दूध में या फिर सादे पानी में मिलाकर पीने के लिए। इसे न केवल भारत, बल्कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी बड़े चाव से पिया जाता है।
लेकिन समय के साथ रूह अफ़ज़ा सिर्फ स्वाद और राहत का पर्याय नहीं रहा — यह अकसर विचारधारा, धार्मिक पहचान और सोशल मीडिया की बहसों का हिस्सा भी बन जाता है।
आइए जानें रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) की अनोखी कहानी, विवाद, इतिहास और खासियतें।
रूह अफ़ज़ा का इतिहास: स्वाद, ठंडक और परंपरा का मेल
रूह अफ़ज़ा की शुरुआत 1906 में दिल्ली में हुई थी, जब यूनानी चिकित्सा के जानकार हकीम अब्दुल मजीद ने इसे ‘तासीरदार ठंडाई’ के रूप में तैयार किया। इसका मकसद था शरीर को गर्मी से राहत देना और ऊर्जा प्रदान करना — खासकर रोज़े के समय या गर्मियों में। गुलाब, केवड़ा, नींबू, तरबूज, बेल और कई यूनानी जड़ी-बूटियों से बना यह सिरप जल्दी ही पूरे भारत में मशहूर हो गया।
बंटवारे के बाद दो देशों में एक ही ब्रांड
1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तब रूह अफ़ज़ा भी दो हिस्सों में बंट गया। भारत में हकीम अब्दुल मजीद के बेटे हकीम अब्दुल हमीद ने इसे जारी रखा और Hamdard India नाम से कंपनी चलाई। वहीं पाकिस्तान जाने वाले दूसरे बेटे ने लाहौर में Hamdard Pakistan की शुरुआत की। बाद में बांग्लादेश में भी इसका एक संस्करण Hamdard Bangladesh के नाम से आया।
इस तरह रूह अफ़ज़ा तीन देशों में अलग-अलग संस्थाओं द्वारा बनाया जाने वाला एक ऐसा ब्रांड बन गया जो सांस्कृतिक रूप से एक ही स्वाद और पहचान को दर्शाता है, लेकिन राजनीतिक सीमाओं और विचारधाराओं में बंट चुका है।
रूह अफ़ज़ा कैसे बनता है?
रूह अफ़ज़ा का मूल फार्मूला यूनानी चिकित्सा पद्धति से प्रेरित है, जिसमें शरीर को संतुलित रखने और भीतरी गर्मी को शांत करने वाले तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी तैयारी में आमतौर पर निम्नलिखित तत्व शामिल होते हैं:
- गुलाब जल
- केवड़ा
- बेल फल
- तरबूज के बीज
- खस
- मुनक्का
- धनिया
- नींबू
- नीली गिलोय
- यूनानी जड़ी-बूटियां
इन सभी को खास अनुपात में मिलाकर एक गाढ़ा सिरप तैयार किया जाता है, जिसे पानी, दूध या अन्य पेयों में मिलाकर पिया जाता है। रूह अफ़ज़ा को खासतौर पर रोज़ा खोलने के समय और गर्मियों की लू से बचने के लिए परंपरागत रूप से इस्तेमाल किया जाता रहा है।
एक नाम, तीन निर्माता — लेकिन कोई पेटेंट नहीं
दिलचस्प बात यह है कि रूह अफ़ज़ा का कोई पेटेंट नहीं कराया गया। हालांकि यह Hamdard ब्रांड के तहत भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश — तीनों देशों में ट्रेडमार्क के रूप में रजिस्टर्ड है, लेकिन इसका मूल नुस्खा या फॉर्मूला किसी एक संस्था के पास कानूनी रूप से सुरक्षित नहीं है।
यही कारण है कि रूह अफ़ज़ा भले ही स्वाद में मिलता-जुलता हो, लेकिन इसके उत्पादन, ब्रांडिंग और बाज़ार नीति में भिन्नता दिखाई देती है। साथ ही, इसकी गैर-पेटेंट स्थिति इसे और अधिक सांस्कृतिक चर्चा और बहस का हिस्सा बना देती है।
सोशल मीडिया और विवाद
हाल ही में पत्रकार करिश्मा अज़ीज़ (Karishma Aziz) ने एक ट्वीट किया जिसमें उन्होंने लिखा —
“गर्मियों में रूह अफ़ज़ा दिल को सुकून देता है! किसी ढोंगी बाबा का मूत्र वाला शरबत पीने से तो अच्छा है!”
इस पोस्ट में सीधे तौर पर बाबा रामदेव को निशाना बनाया गया, और नतीजा वही हुआ जिसकी उम्मीद थी — सोशल मीडिया पर तीखी बहस छिड़ गई।
करिश्मा अज़ीज़ अक्सर ऐसे ट्वीट करती हैं, जो मुस्लिम समुदाय की बातों को लेकर होती हैं और जिनमें हिंदू धर्म या उसकी मान्यताओं पर तीखे कटाक्ष देखे जा सकते हैं। इस वजह से उन्हें लेफ्ट-लिबरल खेमे में समर्थन मिलता है, जबकि राइट-विंग विचारधारा के लोग इन्हें ‘विवाद पैदा करने वाली पत्रकार’ मानते हैं। लेकिन इस बार मुद्दा सिर्फ ट्वीट नहीं था — लोगों ने रूह अफ़ज़ा को भी लपेटे में ले लिया।
क्या रूह अफ़ज़ा ‘पाकिस्तानी ड्रिंक’ है?
जब-जब भारत-पाक संबंधों में तनातनी बढ़ती है, कुछ लोग सोशल मीडिया पर रूह अफ़ज़ा को ‘पाकिस्तानी प्रोडक्ट’ बताकर बायकॉट की मांग करते हैं। जबकि सच्चाई ये है कि Hamdard India एक भारतीय NGO है जो आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा में काम करती है। रूह अफ़ज़ा का भारतीय संस्करण पूरी तरह से यहीं निर्मित होता है।
यानी रूह अफ़ज़ा को “पाकिस्तानी ड्रिंक” कह देना सिर्फ एक भावनात्मक तर्क है, न कि तथ्यात्मक।
हालांकि, इसका नाम, पैकेजिंग और मुस्लिम पहचान इसे बार-बार पहचान और राजनीति की बहस में खींच लाते हैं।
निष्कर्ष: ठंडक देने वाला शरबत, गर्म कर देने वाली बहसें
रूह अफ़ज़ा की बोतल में भले ही गुलाब, केवड़ा और बेल के फूलों की खुशबू हो — लेकिन आज यह सिर्फ स्वाद का मामला नहीं रहा। सोशल मीडिया की निगाह में इसमें मज़हब, विचारधारा और पहचान की कई परतें घुल चुकी हैं।
भारत-पाकिस्तान के तनाव अब सीमाओं तक सीमित नहीं रहे; अब वे हमारे गिलास, थालियों और यहां तक कि रोज़मर्रा की पसंद-नापसंद तक फैल चुके हैं।
जब एक शरबत भी विवादों में घिर जाए, तो सवाल उठता है — क्या हम सच में चीज़ों को उनके स्वाद से नहीं, उनके नाम से आंकने लगे हैं?